11 जनवरी 2017, कानपुर :
अपने वजूद को बचाने के लिए कांग्रेस 27 साल से यूपी में संघर्ष कर रही है। पार्टी के उदय में कानपुर का अहम योगदान रहा है। खुद महात्मा गांधी ने 132 साल पहले शहर आकर कांग्रेस की नींव मेस्टन रोड स्थित तिलक हॉल में रखी थी। लेकिन 1989 के बाद जो पतन की कहानी कांग्रेस की शुरु हुई वह 2012 आते-आते यूपी में 24 तो कानपुर में एक सीट पर सिमट कर रह गई। कांग्रेस को पूरी दम देने वाला ये शहर कभी प्रदेश में कांग्रेस का 'पावर हाउस' हुआ करता था। लेकिन अब कांग्रेस के मौजूदा जुमले '27 साल यूपी बेहाल' को कानपुर के लिहाज से '27 साल कांग्रेस मात्र एक सीट पर रह कर बेहाल' भी कह सकते हैं। कांग्रेस की इस हालत के पीछे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि इसमें सबसे बड़ी भूल जनता दल को समर्थन देकर मुलायम सिंह यादव को सीएम बनाना थी। सरकार बनाते ही मुलायम सिंह ने रंग दिखाना शुरु कर दिया और कांग्रेस के बेस वोटर्स को पूरी तरह से अपने पाले में ले गए और तब से वे वोटर्स कांग्रेस के पास वापस नहीं आ सके।
गांधी जी ने किया था दफ्तर का उद्घाटन
कांग्रेस का कार्यालय मेस्टन रोड स्थित तिलक हाल पर है। प्रदेश महासचिव डॉ. शैलेंद्र दीक्षित ने बताया कि 1925 में तिलक हाल के लिए जमीन खरीदी गई। 1929 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नींव पूजन किया और 1934 में महात्मा गांधी ने उसका उद्घाटन किया। वह बताते हैं कि जितने समय भी कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे, वह स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर लखनऊ में झंडा फहराकर सीधे कानपुर आकर जुलूस में शामिल होते थे। पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व विधायक भूधर नारायण मिश्र बताते हैं कि जंगे-ए-आजादी में कानपुर क्रांतिकारियों का गढ़ था, जिसकी वजह से यह शहर महात्मा गांधी का भी प्रिय रहा था। 1925 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन उसी स्थान पर हुआ था, जहां अब तिलक नगर बसा है। उसमें शामिल होने के लिए महात्मा गांधी खुद आए थे। कांग्रेस की पहली महिला राष्ट्रीय अध्यक्ष सरोजिनी नायडू ने उस अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।
बोफोर्स के बाद जिंदा नहीं हो सकी कांग्रेस
राजीव गांधी के बोफोर्स में नाम के बाद कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गई थी। जनता दल की सरकार बनवाना इसमें एक सबसे बड़ी भूल हुई जो आज तक कांग्रेस के लिए मुसीबत बनी हुई है। आपको बता दें कि इंदिरा गांधी के आपातकाल लगाने के बाद यूपी में चुनाव हुए। कांग्रेस की कमान इन्दिरा गांधी के हाथों में थी। देश में जब 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सरकार बनी तो प्रदेश में भी 306 विधानसभा सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। इंदिरा की ऐसी लहर चली की कानपुर की सभी शहरी सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हो गया। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद यूपी में कांग्रेस ने सभी दलों को साफ कर दिया, राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। कानपुर की अधिकांश विधानसभा सीट जीतने के साथ ही सांसद नरेशचंद चतुर्वेदी बने। मगर राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप घोटाले के आरोप लगने के बाद 1989 में कांग्रेस को जोरदार झटका लगा।
महंगा पड़ा था मुलायम का समर्थन
बेफोर्स की आंच शहर में भी पढ़ी और यहां कांग्रेस को कई सीटें गवानी पढ़ी थीं। पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व विधायक भूधर नारायण मिश्र बताते हैं कि कांग्रेस की बर्बादी की पटकथा उस दिन लिख दी गई जब जनता दल के सीएम के लिए मुलायम सिंह यादव को समर्थन दिया गया था। बहुत से कांग्रेस के नेता इसके विरोध में थे, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई और यहीं से मुलायम सिंह ने पार्टी के बेस वोटर्स को अपने पाले में कर लिया। हालांकि डेढ़ साल में सरकार गिर गई। फिर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भाजपा की सरकार प्रदेश में बनी तो फिर वहां से कांग्रेस के लिए तो जैसे रास्ते ही बंद हो गए। कानपुर में भी एक-दो विधायकों, सांसदों तक पार्टी सिमटी रही।
1952 से 1977 तक थी मजबूत जमीन
पार्टी नेताओं के मुताबिक, आजादी के बाद हुए पहले चुनाव में ही कांग्रेस से ब्रह्मादत्त दीक्षित, हमीद खां, डॉ. जवाहर लाल रोहतगी, सूरज प्रसाद अवस्थी शहर से विधायक चुने गए वहीं, मजदूर नेता हरिहरनाथ शास्त्री सांसद बने। एक साल बाद उनकी मृत्यु पर उपचुनाव में कांग्रेस से ही श्रीनारायण टंडन सांसद बने। 1977 में इमरजेंसी के बाद राष्ट्रीय लोकदल के मनोहरलाल सांसद बने। विधानसभा में भी कांग्रेस लगभग साफ हो गई। वहीं कांग्रेस पार्टा में कानपुर से पहले विद्यार्थी फिर श्रीप्रकाश प्रदेश अध्यक्ष रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलने चंद्रशेखर आजाद से लेकर कई क्रांतिकारी आते थे मगर, विद्यार्थी जी गांधी जी के सिद्धांतों पर चलते हुए आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। उनसे प्रभावित होकर ही 1929 में उन्हें उप्र. कांग्रेस कमेटी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। उनके बाद केंद्रीय मंत्री रहे श्रीप्रकाश जायसवाल 2001 में प्रदेश अध्यक्ष बने और 2003 तक रहे।